भाजपा संगठन में मंत्रिमंडल गठन के बाद हो सकता है बदलाव, कांग्रेस ने किया उम्मीद से बढ़कर…

अम्बाला : कुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनावों में भाजपा के वोट प्रतिशत में आई गिरावट को लेकर पार्टी के आला नेता मंथन में जुटे हैं। हालांकि 2014 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले इस बार 3 फीसदी वोट ज्यादा मिले हैं लेकिन सीटें कम आने की वजह से भाजपा क्षेत्रों में इसे कोई बड़ी उपलब्धि नहीं माना जा रहा है। कहा जा रहा कि अगले कुछ दिनों में मंत्रिमंडल का गठन हो जाने के बाद पार्टी के संगठन में कुछ बदलाव हो सकता है और संभव है कुछ एक जिला व मंडल अध्यक्षों पर भी गाज गिरे।
दोबारा सरकार बनने से भाजपायी खुश तो हैं लेकिन चेहरे पर वह चमक नहीं है जो एक विजेता के चेहरे पर होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि 2014 के मुकाबले में सीटें 47 से घटकर 40 रह गईं जिसकी वजह से भाजपा को मजबूरन जेजेपी से हाथ मिलाना पड़ा।





कांग्रेस में गुटबाजी, इनैलो के वोट बैंक के बिखराव, जेजेपी का कुछ महीने पहले खड़ा हुआ संगठन व मोदी-शाह की धुआंधार रैलियों से लगता था कि भाजपा 75 पार के नारे को आसानी से हासिल कर लेगी लेकिन नतीजों ने भाजपा के रणनीतिकारों को भी हैरान कर दिया। ज्यादातर वरिष्ठ मंत्रियों की हार से एक बात को जाहिर हुई कि सत्ता विरोधी लहर का असर भी था जिसे भाजपा सही तौर पर भांप नहीं पाई। भाजपा को अपने पन्ना प्रमुखों की फौज से जितनी उम्मीद थी उतनी पूरी नहीं हुई। कई शहरी इलाकों में वोट फीसदी में गिरावट भी पार्टी के संगठन के लिए आत्म चिंतन का मुद्दा है। कुछ सीटों पर भितरघात व बागियों का भी असर हुआ है अन्यथा संख्या पिछली बार के आसपास पहुंच सकती थी।

लोकसभा चुनाव के बाद से मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने जिस तरह से प्रदेश में सरकार व संगठन की ताकत झौंकी और यात्राओं के जरिए आम आदमी से सम्पर्क साधा उससे लगने लगा था कि इस बार चुनाव काफी हद तक एकतरफा रह सकते हैं। ज्यादातर टी.वी. चैनलों के एक्जिट पोल ने भाजपा की उम्मीद को आसमान तक पहुंचा दिया था। किसी को उम्मीद नहीं थी कि भाजपा सरकार बनाने लायक भी सीटें नहीं ले पाएगी और उसे दोबारा सत्ता हासिल करने के लिए किसी की बैसाखियों की जरूरत पड़ेगी।



संगठन खड़ा करने में काफी माहिर माने जाने वाले बड़े नेता रामबिलास शर्मा, ओमप्रकाश धनखड़, कैप्टन अभिमन्यु, कविता जैन व कृष्ण लाल पंवार व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला भले ही चुनाव हार गए हैं लेकिन पार्टी में उनकी अहमियत और कद को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सूत्रों के मुताबिक संगठन में उन्हें राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। वैसे भी लगता है कि मुख्यमंत्री अब सरकार के साथ-साथ संगठन की मजबूती पर भी खास तवज्जो देंगे।

कांग्रेस ने किया उम्मीद से बढ़कर…
दूसरी ओर कांग्रेस में नेतृत्व व टिकटों का फैसला चुनाव से करीब एक पखवाड़े पहले हुआ और इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर सोनिया, राहुल व प्रियंका समेत कांग्रेस का कोई भी बड़ा स्टार प्रचारक प्रचार के लिए नहीं आया। कांग्रेस शासित 4 प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के भी दर्शन चुनाव में नहीं हुए, इससे आशंका जताई जाने लगी थी कि कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पाएगी लेकिन उसने 31 के आंकड़े को छूकर सारी अटकलों को गलत साबित कर दिया। पार्टी को सबसे बड़ा नुक्सान हुड्डा व शैलजा में टिकटों की बंदरबांट को लेकर हुआ। कांग्रेस के कुछ नेताओं का कहना है कि अशोक तंवर, सम्पत सिंह व रणजीत सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना पार्टी का फैसला दूरदर्शी नहीं था। जेजेपी का गठन कुछ महीने पहले ही हुआ लेकिन उसने 10 सीटें जीत कर साबित कर दिया कि उसके पास मजबूत संगठन है और युवा कार्यकत्र्ताओं की एक समॢपत टीम भी है। एक साल से भी कम समय में उप मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया लेना उसकी एक उत्साहजनक उपलब्धि है।



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