गीतकार शैलेन्द्र जयंती विशेष:…आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है!

नई दिल्ली। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है…, गाइड के इस यादगार गीत के लिए बाबा पहली पसंद नहीं थे. इस फिल्म के लिए गीत लिखने का जिम्मा उस दौर के बेहद मशहूर गीतकार को मिला था. लेकिन उन्होंने जो गीत लिखा उसके बोल देव आनंद और विजय आनंद को नहीं भाए. लिहाजा एक रात शंकर जयकिशन ने बाबा को फोन करके बोला देव आनंद और विजय आनंद आपसे मिलना चाहते हैं. बाबा ने कहा, ‘तुम जानते हो मैं रात में किसी से मिलने नहीं जाता.’ लेकिन शंकर जयकिशन के जोर देने पर वह राजी हो गए.

जानबूझकर देव आनंद से मांगे थे अधिक पैसे
शंकर जयकिशन ने उन्हें बताया कि देव आनंद और विजय आनंद की फिल्म के लिए एक गीत लिखना है. बाबा इस फिल्म में गीत लिखने से बचना चाहते थे. टालने के मन से उन्होंने इस एक गाने के लिए इतने पैसे मांगे कि उस वक्त के गीतकार ऐसी डिमांड करने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकते थे. उन्हें लगा था कि इतने पैसे देगा नहीं और वो इसके बहाने गीत लिखने से मना कर देंगे. मैं बता दूं, उस जमाने में बाबा सबसे महंगे गीतकार थे.

हालांकि, बाबा की सुनने के बाद देव आनंद और विजय आनंद ने आपस में कुछ मशविरा किया फिर हां कर दिया. अब तो बाबा के पास बहाना भी नहीं बचा था. गीत लिखना था सो उन्होंने सबसे पहले फिल्म की कहानी सुनी. और गाइड के लिए गीत लिखा.

अब आगे देखिए, गीत रिकॉर्ड होने लगा तो देव आनंद को पसंद ही नहीं आया. उन्होंने कहा, ‘ये कैसे बोल हैं…आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है. एक ही लाइन में एक दूसरे से एकदम उलट.’ तब विजय आनंद ने कहा, देखो एक बार गाना शूट कर लेते हैं, उसके बाद भी पसंद नहीं आया तो हटा देंगे. गाना शूट हुआ. बाबा का गीत कमाल कर चुका था. शूटिंग से फारिग हुए तो देव आनंद और विजय आनंद को हैरानी भरी खुशी हुई. दरअसल, उनके यूनिट के हर मेंबर की जुबान पर यह गाना सिर चढ़ चुका था. ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है.’ सभी यही गा रहे थे…गुनगुना रहे थे.

घर में बच्चों के साथ बन जाते थे बच्चा
बाबा एक अलग ही इंसान थे. मुझे बाबा की जिंदगी के आखिर तक यह पता नहीं चला कि वे कितने बड़े आदमी हैं. उनके जाने के 50 साल बाद आज भी यह लगता है कि हर दिन बाबा और बड़े होते जा रहे हैं. बाबा का जीवन गरीबी में बीता था. उन्होंने हम सबको जमीन से जुड़े रहना सिखाया.

पांच भाई बहनों में मैं सबसे छोटा था, इसलिए सबका लाडला भी था. गीतकार के तौर पर बाहर बाबा की व्यस्तता रहती थी लेकिन घर आने के बाद वह कभी थके हुए नहीं लगते थे. वे हमारे साथ वक्त बिताते, हमारी बातें सुनते थे. मुझे आज भी याद है उनके घर आने पर मैं घोड़ा बनने की जिद करता था और वो मना नहीं करते थे.

हमारी मां थोड़ी सख्त थीं. बाबा जैसे ही घर आते हम पांचों भाई बहन उनकी शिकायत करने एक लाइन में खड़े हो जाते. वो सबके पास जाकर मां की शिकायतें सुनते. कोई कहता मां ने मुझे मारा, कोई कहता मां ने मेरे कान खींचे. बाबा दुलार करते…कभी भी खीझते नहीं…चेहरे पर थकान भी नहीं होती. हाथ उठाना तो दूर बाबा ने कभी गुस्सा भी नहीं किया.

संगीत में मेरी शुरू से दिलचस्पी थी तो बाबा मेरे साथ म्यूजिकल गेम खेलते थे. कोई गाने का मुखड़ा गाकर उसका अंतरा पूछते. किसी गाने की धुन गुनगुनाकर वह गाना पूछते. उस दौर के सभी गाने इसलिए मुझे आज भी याद हैं. बाबा दोनों हाथों से लय में ताली बजाकर 5 सेकेंड के बाद मुझे भी वैसे ही लय बनाने को कहते थे.

हमेशा जमीन पर बैठकर खाना खाते थे शैलेंद्र
हमारे घर आए दिन राजकपूर, शंकर जयकिशन जैसे बड़े-बड़े लोग आते थे. ऐसी कोई चीज नहीं थी जो दूसरों के पास हो और हमारे पास ना हो. लेकिन बाबा हमेशा जमीन पर बैठकर खाना खाते थे. हम सब भाई बहन उनके साथ बैठते थे और वो सबको एक-एक कौर खिलाते थे. हमारा बहुत मन होता था कि दूसरों की तरह हम भी डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाएं. लेकिन बाबा खुद भी जमीन से जुडे़ रहे और हमें भी यही सिखाया.

बाबा के बारे में एक गलतफहमी सबको है कि फिल्म तीसरी कसम फ्लॉप होने के बाद माली हालत खराब होने से वो टूट गए. लेकिन ऐसा कतई नहीं है. बाबा ने यह फिल्म बनाई थी और इसमें उनका काफी पैसा भी लगा था. फिल्म फ्लॉप होने के बाद बाबा टूट भी गए थे. लेकिन इसकी वजह पैसा डूबना नहीं बल्कि धोखा था. तीसरी कसम में पैसा डूबने के बाद दोस्तों, रिश्तेदारों का जो रवैया था वह ज्यादा टीस देने वाला था. बाबा का दुख अगर सिर्फ पैसे का होता तो उतने पैसे वो चार पांच महीने में कमा लेते. फिल्म उस समय भले ही कमाई न कर पाई हो लेकिन 1966 की वह सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी. 1966 में उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

इस झटके के बाद खुद को घर बंद कर लिया था
इस झटके के बाद बाबा घर में ही रहने लगे. किसी से मिलते नहीं थे. उसी दौरान नवकेतन फिल्म्स की ज्वेलथीफ बन रही थी. इस फिल्म में एस डी बर्मन का संगीत था. एस डी बर्मन चाहते थे कि इस फिल्म के लिए बाबा गीत लिखें. बर्मन अंकल लगातार घर आते रहे, बाबा उनसे मिलते नहीं. बाबा कमरे में रहते थे और हम कह देते कि बाबा घर पर नहीं हैं. उन्होंने अपनी कार गैराज में बंद कर दी थी ताकि सबको लगे वो कहीं बाहर गए हैं.

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बर्मन अंकल के बार-बार आने की वजह से एक दिन बाबा उनसे मिले. बाबा ने कहा मैं अभी काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा हूं, इसलिए मैं सिर्फ एक गीत लिखूंगा. बाकी गीत मजरूह सुल्तानपुरी से लिखवा लें. बर्मन अंकल ने उनकी बात मान ली. इस फिल्म में बाबा ने लिखा, ‘रुला के गया सपना मेरा.’ फिल्म रिलीज हुई 1967 में पर बाबा 1966 में ही दुनिया को अलविदा कह चुके थे.

(गीतकार शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में हुआ था. उन्हें सरल, सहज भाषा के ऐसे गीत लिखने के लिए जाना जाता है, जिनके गहरे मतलब हों. लेखक दिनेश शंकर शैलेंद्र के सबसे छोटे बेटे हैं. यह मनीकंट्रोल डॉट कॉम हिन्दी की प्रतिमा शर्मा से बातचीत पर आधारित है)

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