ब्रज भ्रमण: स्वप्नादेश से अपने धाम लौटे रसिक बिहारी 

परिस्थितियों ने रसिक बिहारी को अपनी ब्रजभूमि से दूर कर दिया। सैकड़ों बरस तक ठाकुर डूंगरपुर, राजस्थान  में विराजते रहे लेकिन मन यहीं अटका था। एक दिन स्वामी  रसिकदेव स्वप्न दिया, तुम्हारे पूर्वजों के यहां डूंगरपुर में हूं, मुझे वृंदावन बुला लो। रसिक देव जी ने अपने शिष्यों  को उन्हें लेने भेजा। राजा ने पालकी सजाकर रसिक बिहारी  को विदा किया और ठाकुर पहुंचे अपने धाम। रसिक बिहारी के रसीले नैनों रसिक डूबता ही जाता है।

 अठखंभा-वनखंडी मार्ग में रसिक बिहारी का प्राचीन मंदिर है। वह हरिदासी परंपरा के छठवें आचार्य रसिक देव के सेव्य स्वरूप हैं। स्वामी ललित भानुदेव के समय में निधिवन से इनका प्राकट्य हुआ था। रसिक देव जी ने मंदिर बनवाकर  रसिक बिहारी की प्राण प्रतिष्ठा की। मंदिर की नींव खोदते  समय रसिक देव जी को कालीमर्दन की मूर्ति प्राप्त हुई। वह उसे किसी  अन्य मंदिर में पधारना चाहते थे पर काली मर्दन ने स्वप्न देकर कहा   कि वह इसी मंदिर में रहना चाहते है। उनके आदेश पर रसिक बिहारी के समीप उनके विग्रह को स्थापित किया गया। गर्भगृह में रसिक बिहारा  की बांकी झांकी है। विग्रहों के फोटो खींचना निषिद्ध है।

मंदिर में अपरस की सेवा है। बाहर की किसी वस्तु का भोग ठाकुर जी को अर्पित नहीं किया जाता है। लकड़ी और कंडे पर ही प्रसाद बनता है। प्राचीन परंपराओं का निर्वाह अब भी किया जा रहा है।

यवनों के काल में प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिया गया। परिस्थितिवश  रसिक बिहारी के विग्रह को वृंदावन से हटाकर उदयपुर, डूंगरपुर आदि  राज्यों में छिपाकर रखा गया था। उस समय रसिक बिहारी ने द्वारका, जूनागढ़, चित्तौड़ आदि स्थानों की भी यात्रा की।

इन राज्यों के पढ्टे और फरमानों से इसकी पुष्टि होती है। मंदिर में लगे शिलापट के अनुसार सन 1685 में रसिक देव को स्वप्नदोष होने पर उन्होंने अपने शिष्यों को डूंगरपुर भेजा और तब रसिक बिहारी वृंदावन लौटे। रसिक  देव की शिष्य परंपरा में गोवर्धनदास जी ने सन् 1755 में नए मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर प्रांगण में रज और लता-पताओं को संजोया  गया है। वृंदावनधामनुरागावली के वर्णन से पता चलता है कि मंदिर बनवाने के बाद गोवर्धन दास ने यहां समाज का आयोजन किया। नरहरि देव, रसिक देव, पितर देव, और देव, गोवर्धन, कृष्ण शरमन ठाकुर का यशगान किया।

गोरीलाल की अनुपम छवि

रसिक बिहारी मंदिर प्रांगण से गोरीलाल मंदिर का रास्ता गया है। हरिदासी संप्रदाय के इस दिवाली में रसिक  शिरोमणि और गोरीलाल विराजमान हैं। श्रृंगार व आभूषणों से अलंकृत इन स्वरूपों की अनुपम झांकी है!  गोरेलाल ठाकुर हरिदासी परंपरा के पंचम आचार्य नरहरि देव द्वारा सेवित हैं। रसिक देव जी ने भी इनकी सेवा की  है। बुंदेलखंड के राजा ने गोरीलाल जी के लिए मंदिर निर्माण कराया था।

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