ब्रज भ्रमण: मेरे बांके बिहारी लाल तू इतना न करियो श्रंगार, नजर तुझे लग जायेगी

 मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल। यहीं बानिक मो मन बसॆ सदा बिहारीलाल।।

वृंदावन के प्राण है वो। उनके पास ले जाती गैल भी यही कहती है। दिन-रैन अपने बांके बिहारी के गुन गहती है। रसिकों की रसाधार जहां निरंतर बहती है। कहीं आवाज आती है, मेरे बांके बिहारी लाल, तू इतना न करियो श्रृंगार, नजर तोहे लग जाएगी, तो कोई दीवानी गा उठती है, मेरे बांके बिहारी पिया, चुरा दिल मेरा लिया… श्री हरिदास के प्राणन प्यारे, सूरदास के नैनन तारे, तेरी मस्ती ने पागल किया…। इस रस संसार में सराबोर भक्त नाचते-गाते आगे बढ़ते हैं। बाहर का मौसम कैसा भी हो, यहां प्रीति की सदाबहार ऋतु रहती है। भक्ति के कदमों की आहट सुन कोहरे में दुबकी, ठिठुरी भोर भी चहकने लगती है। मंदिर खुलने से पहले श्रद्धा का ज्वार आ उमड़ता है। राधे-राधे भजते श्रद्धालु अपने ठाकुर के दर्शन की बाट जोहते हैं। पट खुलते ही चेहरे खिल उठते हैं और आंखें खुशी से चमकने लगती हैं। बांके की बांकी झांकी और को आनंद से ओत प्रोत कर देती है। संगीत सम्राट स्वामी हरिदास के उपास्य बांके बिहारी की सारी दुनिया दीवानी है।

बिहारीपुरा मोहल्ला स्थित बांके बिहारी मंदिर तीर्थ यात्रियों का विख्यात धाम है। देश विदेश के हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन बांके बिहारी के दर्शन को यहां उमड़ते हैं। मंदिर में राधा रानी की गादी सेवा है। सखी संप्रदाय के अनुसार यहां निकुंज की सेवा है। पांच भोग, तीन आरती की व्यवस्था है। सेवा का दायित्व बांके बिहारी के पूर्व पुजारी जगन्नाथ जी के वंशजों का है जो बिहारी पुरा में रहते हैं। नियमानुसार वे लोग सखी भाव से श्यामा श्याम मिलित स्वरूप की पूजा करते हैं।

प्रिया प्रीतम के नित्य विहार में किसी तरह की बाधा उत्पन्न न हो यही निकज का सेवा भाव है। इस वजह से मंदिर में घंटे घड़ियाल या वाद्ययंत्र नहीं बजते। तेज आवाज, ताली बजाने से भी परहेज किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि ठाकुर जी नित्य रात्रि में रास रचाते हैं।

इसलिए उनके शयन भोग में बूंदी के चार लड्डू रखे जाते हैं। किवदंती है कि एक बार सेवायत लड्डू रखना भूल गए। रास से आने के बाद ठाकुर जी को भूख लगी। मंदिर के सामने हलवाई की दुकान पर जाकर उससे चार लड्डू मांगे। बदले में सोने का कड़ा दे दिया। सुबह पट खोलने पर बांके बिहारी के विग्रह का हाथ का कड़ा गायब था।

विशेष

यहां वर्ष में केवल एक बार जन्माष्टमी के दिन मंगला आरती होती है। सिर्फ शरद पूर्णिमा के दिन बांके बिहारी वंशी धारण करते हैं। अक्षय तृतीया पर ठाकुर जी के चरणों के दर्शन होते हैं। हरियाली तीज के दिन बिहारी जी स्वर्ण हिडोले पर विराजमान होते हैं। ठाकुर जी को इत्र की मालिश की जाती है। उन्हें दही-भात का भोग सबसे प्रिय है।

इतिहास

स्वामी हरिदास जी ने सन् 1543 के लगभग मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को निधिवन से बिहारी जी की मूर्ति का प्राकट्य कर सेवा पूजा प्रचलित का। वह शुभ तिथि बिहारी पंचमी के नाम से प्रसिद्द है। पहले ताकुर जी निधिवन में ही विराजते । मंदिर के सेवायत गोस्वामियों में से एक अतुल कृष्ण गोस्वामी के अनुसार “भरतपुर के राजा रतन सिंह ने सन् 1605 मे मंदिर का निर्माण करवाया जिसमें सभी गोस्वामियों ने सेवा की। बिहारीपरा भरतपुर स्टेट की जमीन पर बसा हुआ है। पर्याय की जी नजर ना लग जाए हाय हाय हाय… बांके बिहारी के दर्शन के दौरान पर्दा आता जाता रहता है ताकि भक्त ठाकर जी पर नजरें न टिका स्कें। यह माना जाता है कि ठाकुर को एकटक देखने से उन्हें नजर लग जाती है गोस्वामी बताते हैं कि करीब सवा सौ साल पहले मंदिर भें पर्दा नहीं लगता था। एक दिन करौली की रानी बांके बिहारी के दर्शन करने आई । उन्होंने ठकुर को एकटक देखा। सो ठाकुर जी उनके पीछे चल दिए। रानी जब महल पहुची तो वहा बांके बिहारी को विराजमान पाया। सुबह सेवा करने आए गोस्वामी को ठाकुर जी की मूर्ति नहीं मिली। पूरा मोहल्ला करुण क्रंदन करने लगा। पता चलने परट सब करौली पहुंचे पर राजी ने ठकुर जी को देने से मना कर दिया गोस्वामियों ने ठाकुर जी को लाने की योजना बनाई। इसके लिए होली का दिन चुना गया। राजमहल टतपट स्टेट में युद्ध हुआ जिसमें भरतपुर की जीत हुई। तब जाके बांके बिहारी वृंदावन आए । करौली और अटतपुर मैं भी के लोगों को भांग पिलाकर अपने बांके बिहारी को लेकर भरतपुर पहुंचे। वहा के राजा से मदद मांगी। तब करौली और बांके बिहारी के मंदिर है।

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*