ब्रज-भ्रमण- वृंदावन का महिमामय धाम

गोधूली बेला में जगन्नाथ जी के दर्शन का सुखद संयोग बना। यमुना किनारे स्थित मंदिर की अलौकिक छटा मन को भा गई। जगमोहन से आ रही पावन ध्वनि कण-कण में निनादित थी। शंख, घंटे-घड़ियाल, ढोलक मंजीरे, नगाड़े एकमय होकर जगन्नाथ जी जग की आरती कर रहे थे। एक दूसरे में गुथे उन स्वरों की वंदना सुन प्रकृति भी नतमस्तक हो गई। यह धाम बड़ा दिव्य और महिमामय है।

गर्भगृह में जगन्नाथ, सुदर्शन चक्र, सुभद्रा और बलराम के सुंदर विग्रह जा दर्शनीय हैं। ये विग्रह पुरी से वृंदा विपिन आए हैं। जगन्नाथ जी को ब्रजवास की इच्छा जगी। इसके लिए उन्होंने अपने भक्त हरिदास का सहारा लिया। भक्त प्रवर ने उन्हें पुरी से वृंदावन लाकर प्रतिष्ठापित किया। माध्व गौड़ेश्वर संप्रदाय से जुड़ा यह मंदिर सेवा प्रकल्पों के लिए भी जाना जाता है। इसके द्वार सर्वधर्म के लोगों के लिए खुले हैं। जगन्नाथ घाट पर करीब दौ सौ वर्ष प्राचीन जगन्नाथ मंदिर स्थित है। संगमरमर से निर्मित सुंदर प्रवेश द्वार से आगे बढ़ते हैं। मंदिर के शिखर पर संकीर्तन करते चैतन्य महाप्रभु की मन मोहिनी झांकी है।

जगन्नाथ पीठाधीश्वर स्वामी ज्ञान प्रकाश महाराज को मंदिर के इतिहास की संपूर्ण जानकारी है।

फरीदकोट, पंजाब के भक्त हरिदास यमुना तट पर भजन करते थे। पहले यहाँ यमुना जी का बहाव था। बहुत समय व्यतीत होने पर भी हरिदास को ठाकुर जी के दर्शन नहीं हुए। विरह वेदना में दिन-रात अश्रु बहाते रहते। तभी एक दिन मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण ने साक्षात दर्शन दिए। हरिदास जी भगवान को एकटक निहार रहे थे। तभी उनके चरणों पर नजर पड़ी। भक्त ने ठाकुर जी के चरणों में मस्तक रख दिया। भगवान ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा, जगन्नाथपुरी जाओ और मेरा प्रथम विग्रह लाकर यहां स्थापित करो। इतना कहकर प्रभु अंतर्धान हो गए। श्री कृष्ण की आज्ञा सुन हरिदास महाराज अपनी शिष्य मंडली के संग पुरी के लिए रवाना हो गए। पुरी में एक नियम है कि 36 साल बाद जब दो आषाढ़ आते हैं, तब जगन्नाथ जी का कलेवर (विग्रह परिवर्तन) होता है। पुराने विग्रह को समुद्र में प्रवाहित कर नये विग्रह की स्थापना की जाती है। महात्मा जी ने पुरी के राजा प्रताप रुद्र से मिलकर सारी बातें बताईं। राजा ने कहा कि जगन्नाथ जी ने मुझे कोई आदेश नहीं दिया है। विग्रह समुद्र में ही विसर्जित किए जाएंगे। महात्मा जी ने कहा, फिर तो मेरा शरीर समुद्र में प्रवाहित होगा। वह चक्रतीर्थ पर जाकर भगवान का ध्यान करने लगे शयन काल में राजा को जगन्नाथ जी ने स्वप्न में कहा कि हरिदास को विग्रह सौंप दो। तब राजा ने भक्त से क्षमा मांगी और आदर सहित जगन्नाथ, सुभद्रा, बलराम और सुदर्शन चक्र को रथ पर विराजमान कर वृंदावन के लिए रवाना किया। तब हरिदास जी ने इस स्थान पर विग्रहों के पधारा। ज्ञान प्रकाश महाराज के गुरु गोलोक वासी ईश्वरपुरी महाराज ने सन् 1979 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर में उनके द्वारा स्थापित राधा कृष्ण के विग्रह हैं। यहां मुख्य उत्सव जगन्नाथ जी की रथयात्रा का है। मंदिर में अखंड ज्योति जलती है और अखंड संकीर्तन होता है।

अखंड आनंद का दान देते जगन्नाथ

स्वामी ज्ञान प्रकाश महाराज के अनुसार स्कंद पुराण में जगन्नाथ जी के विषय में ब्रह्मा राजा इंदुदंभ से कह रहे हैं कि जो विदारण करे या दान दे, उसे जगन्नाथ कहते हैं। इसलिए यह दारू (नीम काष्ठ) के रूप में प्रकट हुए हैं। जगन्नाथ जी स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के दुखों का हरण कर अखंड आनंद का दान देते हैं। मंदिर के प्रकल्प, व्यवस्थाएं सब कुछ वही संभालते हैं। मंदिर ट्रस्ट द्वारा अन्नक्षेत्र चलता है जिसमें प्रतिदिन जरूरतमंदों को भोजन बांटा जाता है। होम्योपैथिक और एलोपैथिक की निःशुल्क डिस्पेंसरी भी है। सर्दियों में जरूरतमंदों को कंबल बांटे जाते हैं। सर्वधर्म की निर्धन कन्याओं का विवाह कराया जाता है। इसके अलावा साधु सेवा, फ्री गेस्ट हाउस, जल सेवा आदि प्रकल्प भी चलते हैं। मंदिर ट्रस्ट नशे के सख्त खिलाफ है। यहां रहने वाले साधुओं को नशा करने की अनुमति नहीं है। यहां तक कि दान भी उसी को दिय है, जो नशा न करता हो।

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