ब्रज भ्रमण: गोपी के रूप में विराजे महादेव

गोपेश्वर महादेव वहीं जे वज्रनाभि पधराए। गोपीरूप धेरै गोपीवर गोपेश्वर सु कहाए।

वंशीवट ढिंग थापि नाम तह गोपीश्वर धरि दीनौ। वृंदावन के कोतवाल करि तिहि दीनी।।

गले मै सरपन की माला लटकाए, भस्म रसाए भोला भंडारी ऐ तौ सब जौनैं पर नैक हमाये संग गोपीश्वर मंदिर आय कै देखौ।

इतै गोपी बने बैठे इतराय रहे हैं। लहंगा फरिया पहने, नाक मैं नथनी, माथे पै बिंदिया लगाये गोपीश्वर के गुलाबी रूप कू नजर नाय लगै। माधव के महारास मै महादेव नै गोपी बनकै ही प्रवेश पायो हतो। च्यौंकि ब्रज में तो बस एक ही पुरुष है और बो है अपनौ कान्हा। गोपीश्वर के दर्शन किए बिन ब्रज की यात्रा सफल नाय होवै।

वृंदावन के वंशीवट मार्ग में स्थित गोपीश्वर महादेव वज्रनाभ द्वारा स्थापित हैं। इस प्राचीन देव स्थान में भोले बाबा के गोपी रूप में दर्शन हैं। गर्भगृह के बाहर पार्वती, गणेश जी विराजमान हैं करीब पचास साल पहले मंदिर का जीणोद्धार हुआ है।

वंशीवट पर कृष्ण ने त्रिभुवन मोहिनी वंशी बजाई जिसकी ध्वनि वैकुंठादि लोकों में भी पहुंच गई। कैलाश पर समाधिस्थ भोले बाबा का ध्यान भी भंग हो गया। ध्वनि से आकृष्ट होकर शिव शंभू ब्रज की ओर चल पड़े। संग में पार्वती, अर्जुन नारद आदि सभी थे। महारास में पार्वती तो प्रवेश पा गईं लेकिन द्वारपाल-वृंदा देवी की आज्ञा के बिना शिव अंदर न जा सके। उनके उपाय पूछने पर ललिता सखी ने कहा, मानसरोवर में स्नान कर नारी स्वरूप धारण करने से आप अंदर आ सकते हो। तब अर्धनारीश्वर वृंदावन में सोलह श्रृंगार कर पूरी नारी बन गए। तब गोपेश्वर के महाराज के दर्शन सुलभ हुए।

सदाशिव ने श्रीकृष्ण से कहा, हम एक पल के लिए आपके श्रीचरणों को छोड़कर नहीं रहना चाहते। भगवान ने तथास्तु कहकर कालिंदी के निकट वंशीवट सन्मुख महादेव को विराजमान कर दिया। नाम रखा गोपेश्वर। राधा कृष्ण गोपियों सहित यह कहते हुए उनकी पूजा की कि ब्रज यात्रा इनके दर्शन करने से ही पूरी होगी। श्री कृष्ण के गोलोक धाम चले जाने के बाद उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने शांडिल्य ऋषि के सहयोग इस विग्रह को तुलसी वन के मध्य से खोजकर पुनः स्थापित किया।

पार्वती, बाबा को छोड़कर कार्तिकेय, गणेश को लेकर सस में चली गई थीं। इसलिए वे गर्भ ग्रह से बाहर ही विराजमान हैं। महाशिवरात्रि पर इस मंदिर में बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है।

वृंदावन के मध्य विराजे वनखंडी

गोपीश्वर के बाद वृंदावन में वनखंडी महादेव की बहुत मान्यता है। वनखंडी चौराहे पर इनका भव्य मंदिर स्थापित है। गोपाल कवि कृत वृंदावनधामानुरागावली में वनखंडी महादेव कथा का वर्णन है। एक सेठ छकरे में वनखंडी महादेव पिंडी लेकर जा रहा था। इस ठौर पर छकरा रूक गया। बहुत उपाय करने पर भी हिला नहीं। बहुत कोशिश करने के बाद महादेव को काशी में पधराया गया। बाद में वहां से आकर वनखंडी को यहां स्थापित किया गया। सेठ के परिवारीजनों ने मंदिर बनवाकर वनखंडी महादेव की प्रतिष्ठा की। तब से वनखंडी बाबा वृंदावन के मध्य में विराज रहे हैं। गोपेश्वर के साथ इनकी भी बड़ी ख्याति है। दोनों मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र हैं।

नमो नमो जु भक्ति रिझवार।

नाम विदित गोपेश्वर जिनके।

ते वृंदा कानन कुतुवार।

यात्रा सुफल होत बस जबहीं।

जो रज वदै नंदुरबार।

वृंदावन हित रूप सखी वपु।

सेवत दंपति नित्य विहार।

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