भक्ति और प्रेम का पर्याय हैं मीरा

आली म्हाने लागे वृंदावन नीको
घर घर तुलसी ठाकुर पूजा, दरसण गोविंद जी को
निरमल नीर बहत यमुना में, भोजन दूध दही को
रतन सिंहासन आप विराजै, मुगट धर्यो तुलसी को
कुंजन कुंजन फिरत राधिका सबद सुन मुरली को
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिन नर फीको (मीरा)

पग घुंघरूं बांध मीरा नाची रे
मैं तो अपने नारायण की आप ही होगी दासी रे
लोग कहै मीरा भई बावरी, सासू कहै कुलनासी रे
विष का प्याला राणा जी ने भेज्या
पीवत मीरा हाँसी रे (मीरा)

उस प्रेम दीवानी के भाव सागर को शब्दों में समेट सकूं, इतनी कुव्वत मेरी कलम में नहीं है। उनकी पंक्ति से ही कहती हूं, मीरा प्रभु गिरधर मिलें जैसे पाणी मिलि गयो रंग । मीरा और मोहन रिश्ता ऐसा ही है । मीरा का मीत भी श्याम, गीत भी श्याम, प्रीत श्याम और रीत भी श्याम । भक्ति और प्रेम का पर्याय हैं मीरा । फिर ठाकुर के निज धाम से कैसे दूर रहतीं । संसार के सारे बंधन तोड़ अपने सांवरे के पास आ पहुंचीं । आज मैं देख्यौ गिरधारी… आली म्हाने लागे वृंदावन नीको… आज वहीं खड़ी हूं, जहां कभी प्रेम दीवानी, मतवारी मीरा अपने मोहन के गुन गहती थीं। उनकी भक्ति के स्पर्श की अनुभूति से रोम-रोम पुलक उठा है। आंखों में प्रेमाश्रु उमड़ आए हैं। यहां मीरा भी हैं और उनके प्यारे शालग्राम भी ।
गोविंद बाग मोहल्ले में भक्त शिरोमणि मीराबाई का प्राचीन मंदिर है । मीरा के मन सा पावन और प्यारा । वातावरण में दिव्यता और शांति घुली है। मध्य में चलते फुव्वारे से सादगी की फुहारें बरसती हैं। राजस्थान से वृंदावन आई मीराबाई ने इसी स्थान को अपनी भजन स्थली बनाया था । दाईं ओर स्थित उनकी भजन कुटिया श्याम रंग में रंगी है ।
भजन करती भीरा के चित्र को देख मन मगन हो जाता है, मोहनी मूरत श्याम की तन मन रही समाय, जिमि मेहंदी के पात में लाली लखी न जाय ।
गर्भगृह के मध्य में मनोहर उनकी वाम कर विशा में राधा यह दाईं ओर मीरा की मूरत शोभायमान है। निचले सिंहासन पर राधा मनोहर जी का उत्सव विग्रह विराजमान है और संग में लाठी है। इनके निकट मीरा के शालग्राम का विग्रह है। राणा ने मीरा को मारने के लिए फूलों की टोकरी में जो सर्प भेजा था, वह शालग्राम के रूप में परिवर्तित हो गया।
मंदिर के सेवायत प्रद्युम्न प्रताप सिंह कहते हैं “शालग्राम को प्रकट देख मीरा के नेत्रों से बहे प्रेमाश्रु उन पर गिरे । इससे तत्क्षण शालग्राम में साक्षात कृष्ण भाव जागृत हो गया । उसके दो नेत्र कर्ण और नासिक बन गई । अधरों पर मुस्कान साक्षात विराजमान हो गई जो अब भी नजर आती है।”
सेवायत ने बताया कि “करीब पांच सौ साल पहले चित्तौड़ की महारानी मीराबाई वृंदावन पधारीं थीं । हमारे पूर्वज उन्हें यहां लाए । उन्होंने मीरा को संपूर्ण ब्रज का भ्रमण कराने के बाद कहा मीरा! तुम्हें जो स्थान सबसे प्रिय लगे वो मैं सेवा में अर्पण करूंगा । इस स्थान की विशेषता यह है कि इसके एक हाथ पर स्वामी हरिदास की साधना स्थली निधिवन है तो दूसरे हाथ पर गौड़ीय संप्रदाय का श्री राधा दामोदर मंदिर । सामने यमुना तट पर हित हरिवंश जी का रासमंडल है। इसके पीछे गविंद देव का मंदिर है । यह स्थान गोविंद मंदिर का बगीचा था । इसका नाम गोविंद बाग था । मरा ने इसे अपनी भजन स्थली बनाया । वह करीब 15 वर्ष ब्रज में रहं । महारे पूर्वज शिव बख्श सिंह क शालग्राम का विग्रह देकर मीरा द्वारका चली गईं । व्योमकेश भट्टाचार्य की पुस्तक ‘मीरा की कहानी’ में उनके वृंदावन वास का वर्णन है । बीकानेर के राज दीवान ठाकुर राम नारायण सिंह ने स् 1761 में इस मंदिर का निर्माण कराकर संपूर्ण संपत्ति प्रभु राधा मनोहर जी महाराज को समर्पित कर दी ”
गौड़ीय संत जीव गोस्वामी और मीरा का प्रसंग भी इस स्थान से जुड़ा है । वृंदावन आने के बाद मीरा के दर्शन को गईं सेवकों ने जवाब दिया कि वह स्त्रियों से नहीं मिलते । तब मीरा ने पुन:पूछा कि ब्रज में तो एकमात्र पुरूष श्री कृष्ण हैं और शेष उनकी सहचारियां । कृष्ण के अलावा यहां कौन अन्य पुरूष आ पधारे ? इस प्रश्न से जीव गोस्वामी को भावात्मक अनुभूति मिली औऱ वह मीरा के दर्शन को यहां आए ।

या बाब्रज में कछु देख्यो री टोना
लै मटुकी सिर चली गुजरिया
आगे मिले बाबा नंद जी के छौना
दधि को नाम बिसरि गयो प्यारी,
लैलहु कोई स्याम सलोना
वृंदावन की कुंज गलिन में,
नेह लगाइ गयो मनमोहन
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर,
सुंदर श्याम सुधर रस लोना।
(मीरा)

और रणछोड़ के हृदय में समा गई मीरा
मीराबाई वृंदावन में सत्संग लाभ लेकर त सभी लीला स्थलियों का भ्रमण कर
चित्तौड़ लौट गईं । वहां कुछ समय रहने के बाद सन् 1543 के लगभग द्वारका चली गईं । कहा जाता है कि एक बार राणा जी चित्तौड़ से मीराबाई को लेने द्वारका गए पर उन्हें निराश लौटना पड़ा । मीरा तो अपने रणछोड़ रिझाने में निमग्न थीं । एक दिन वे द्वारकाधीश जी के सम्मुख कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगीं । उनका स्थूल शरीर प्रकाश बनकर द्वारकाधीश के विग्रह में लीन हो गया । यह घटना सन् 1573 आसपास की है।

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