जब विष्णु अवतार नरसिंह को मारने के लिए शिव ने लिया 16वां अवतार

विकराल रूप, शेर की दहाड़ वाले भगवान विष्णु का नरसिंह अवतार के बारे में तो आपने पढ़ा ही होगा। कि अत्याचारी  हिरण्यकश्यप जैसे दैत्य का विनाश करके सृष्टि को पाप मुक्त करने के लिए भगवान विष्णु ने नरसिंह का अवतार लिया था। 

 

मनुष्य के शरीर और सिंह के मुख वाले नृसिंह भगवान हिरण्यकश्यप के महल के स्तंभ से ही प्रकट हुए थे। लेकिन हिरण्यकश्यप को मारने के बाद भगवान नरसिंह कहां गए। क्या उनकी मौत हो गई? आखिर भगवान नरसिंह के अंत का कारण क्या रहा आज हम आपको बता रहे है इससे जुड़ी एक कहानी।

 

नरसिंह देव, जो ना पूरे पशु थे और ना पूरे मनुष्य, उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध अस्त्रों या शस्त्रों से नहीं बल्कि अपनी गोद में बिठाकर अपने नाखूनों से उसकी छाती चीर कर की थी।

उसे तब मारा गया जब दिन और रात आपस में मिल रहे थे और वह भी चौखट पर बैठकर। इस तरह ईश्वर के वरदान का भी महत्व रह गया और हिरण्यकश्यप जैसी बुराई का भी नाश हुआ। किंतु अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का वध करने के बाद भी भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। लाल आंखें और क्रोध लबालब चेहरे के साथ वे इधर-उधर घूमने लगे। उन्हें देखकर हर कोई भयभीत हो गया था।

उसके बाद भगवान नृसिंह के क्रोध से तीनों लोक कांपने लगे, इस समस्या के समाधान के लिए सभी देवता गण ब्रह्मा जी के साथ भगवान शिव के पास गए। उन्हें यकीन था कि भगवान शिव के पास इस समस्या का हल अवश्य होगा। सभी ने मिलकर महादेव से प्रार्थना की कि वे नृसिंह देव के क्रोध से बचाएं।

भगवान शिव ने पहले वीरभद्र को नरसिंह देव के पास भेजा, लेकिन ये युक्ति पूरी तरह नाकाम रही। वीरभद्र ने भगवान शिव से यह अपील की कि वे स्वयं इस मसले में हस्तक्षेप करें और व्यक्तिगत तौर पर इस समस्या का हल निकला। फिर क्या था महादेव ने, जिन्हें ब्रह्मांड में सबसे शक्तिशाली माना जाता है, वो भी नरसिंह देव के क्रोध और उनकी शक्ति के सामने कमजोर पड़ गए। जिसके बाद महादेव ने मानव, चील और सिंह 3 के शरीर वाले भगवान सरबेश्वर का स्वरूप लिया।

ब्रह्मांड में उड़ते हुए भगवान सरबेश्वर, नरसिंह देव के निकट आ पहुंचे और सबसे पहले अपने पंखों की सहायता से उन्होंने नरसिंह देव के क्रोध को शांत करने का प्रयत्न किया। लेकिन उनका यह प्रयत्न बेकार गया और उन दोनों के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया। यह युद्ध करीब 18 दिनों तक चला।

जब भगवान सरबेश्वर ने इस युद्ध को समाप्त करने के लिए अपने एक पंख में से देवी प्रत्यंकरा को बाहर निकाला, जो नृसिंह देव को निगलने का प्रयास करने लगीं। नरसिंह देव, उनके सामने कमजोर पड़ गए, उन्हें अपनी करनी पर पछतावा होने लगा, इसलिए उन्होंने देवी से माफी मांगी। शरब के वार से आहत होकर नृसिंह ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया और फिर भगवान शिव से यह प्रार्थना की कि वह उनकी चर्म को अपने आसन के रूप में स्वीकार कर लें।

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