कोरोना कर्फ्यू में एक परिवार की कहानी,गरीबी में बिलबिला रही भूख

सोनू गोयल
यूनिक समय, कोसीकलां। यहां अमीर दिन में दो बार कपडे़ बदलते है तो गरीब को तन ढकने तक को नहीं मिलता।
कोई आलीशान कोठियों के वातानुकूलित कमरों में सोता है तो कोई फुटपाथ किनारे पड़ा रात गुजार देता है। किसी को इतना मिलता है कि खाकर उसका पेट खराब हो जाता है तो किसी को एक वक्त की रोटी के लिए भी दूसरों के सामने हाथ फैलाने पडते हैं। भले ही हमारी आंखें अमीरों की खिड़कियों के भीतर न झांक पाएं, लेकिन गरीबी का दर्द तो हर चैराहे और हर गली में रोजाना दिखाई दे जाता है।
आजकल ऐसा हो रहा है कोरोना की दूसरी लहर में पैदा हुए लॉकडाउन में समर्थ लोग जहां घरों में पकवानों का आनंद ले रहे हैं वहीं गरीबों की बस्तियों में दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत हो रही है।

इन लोगों की आंखें टकटकी लगाकर इस बात का इंतजार करती हैं कि शायद कहीं से कोई थोड़ी राहत लेकर आ जाए। बच्चे जब भूख से बिलबिलाने लगते है तो घर में रखे चावल में पानी और नमक डालकर यूं ही उनके पेट आग शांत कर दी जाती है। शहर के इलाकों में ऐसे सैकडों लोग है जिनकी रोजी रोटी को एक बार फिर लॉकडाउन ने छीन ली है। सात दिन में से तीन दिन का लॉकडाउन में घर पर बैठना बचे चार दिन में दो दिन ही काम मिल पाता है।

ऐसे में दो वक्त की रोटी के लिए या तो उन्हें प्रशासन की मदद का इंतजार रहता है या फिर किसी कथित समाजसेवी की मदद का, लेकिन उनके आशियानों तक ये मदद पहुंच नही पा रही है। बस स्टैण्ड पर रहने वाले खानाबदोश छह सात परिवार महीनों से यहां पड़े हैं। लोहे का सामान बनाकर बेचने से दो वक्त की रोटी जुगाड़ हो जाती थी। लेकिन कोरोना और लॉकडाउन से वह सहारा भी छिन गया है। इन परिवारों ने 25 से 30 लोग है। महिला और छोटे बच्चे भी है। कोई खाना दे गया तो खा लिया वरना कभी-कभी तो भूखा ही सोना पड़ जाता है।

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