द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को दी जाएगी भू-समाधि, जानिए कैसे होता है संतों का अंतिम संस्कार

द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती रविवार दोपहर तीन बजे ब्रह्मलीन हो गए। उन्होंने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर के झोतेश्वर स्थित परमहंसी गंगा आश्रम में 99 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली। आज उन्हें सोमवार दोपहर करीब 4 बजे आश्रम में ही हिंदू परंपरा के अनुसार भू समाधि दी जाएगी। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य अविमुक्तेश्वरानंद ने बताया कि ब्रह्मलीन हुए गुरूजी को सिर्फ और सिर्फ भू समाधि ही दी जाएगी। क्योंकि उन्होंने अंतिम समय में भूसमाधि की इच्छा जाहिर की थी। उन्हें नदियों में फैल रहे प्रदूषण की बहुत चिंता थी। इसलिए उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मुझे जलसमाधि नहीं, भू समाधि ही देना। तो आइए जानते हैं क्या होती है भू-समाधि, क्यों संतों को अग्नि में नहीं किया जाता अंतिम संस्कार…

बता दें कि सनातन धर्म में तीन तरह से अंतिम संस्कार किया जाता है। पहला आम लोगों का अंतिम संस्कार जलाकर किया जाता है। वहीं छोटे बच्चों को जमीन में दफनाकर अंतिम विदाई दी जाती है। वहीं साधु-संतों के लिए अंतिम संस्कार का अलग नियम है। उन्हें जलसमाधि या भूसमाधि दी जाती है। माना जाता है कि साधु और बच्चों का तन और मन निर्मल रहता है। इस कारण उन्हें उन्हें जमीन के अंदर शवासन की अवस्था में दफनाया जाता है।

शास्त्रों के अनुसार-संतों की समाधि इसलिए दी जाती है, क्योंकि ध्यान और साधना से उनका शरीर विशेष उर्जा वाला है। इसलिए शारीरिक ऊर्चा को प्राकृतिक रूप से विसरित होने दिया जाता है। वहीं संतों का पूरा जीवन जीवन परोपकार के लिए होता है। वो मृत्यु के बाद भी अपने शरीर से परोपकार करते हैं। क्योंकि जलाकर अंतिम संस्कार करने पर शरीर से किसी को लाभ नहीं होता है। उल्टा पर्यावरण को हानि होती है। जबकि संत हमेशा से ही पर्यावरण रहते हैं। ऐसे में साधु-संतों का अंतिम संस्कार जमीन या जल में समाधि देकर किया जाता है। हालांकि . संत परम्परा में अंतिम संस्कार उनके सम्प्रदाय के अनुसार ही तय होता है है कि उन्हें जलसमाधि दी जाए या फिर भू-समाधि….इन दोनों तरीकों में छोटे-छोटे करोड़ों जीवों को शरीर से आहार मिल जाता है।

सबसे पहले तो संतों की समाधि के लिए 6 फीट गहरा और 6 फीट लंबा गड्डा खोदा जाता है। जिसकी गहराई भी 6 फीट होती है। इसके बाद उसे गाय के गोबर से लीपा जाता है। फिर इसी बड़े गड्डे में एक छोटा और गड्डा खोदा जाता है। जिसे भी गोबर से लीपा जाता है। फिर छोटे गड्डे में संतों से संबंधित चीजें-कमंडल, रद्राक्ष की माला, दंड आदि रखते हैं। फिर पहल के तरह साधू का श्रृगांर किया जाता है। शरीर पर घी का लेप लगाया जाता है। जो सांत जैसा तिलक लगाता था उसे वैसा ही तिलक लगाते हैं। पूरे शरीप पर इसके बदा भस्म लगाई जाती है। इस पूरी प्रकिया के दौरान अन्य साधू-सांत वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते-रहते हैं।

संत को भू-समाधि में पद्मासन या सिद्धिसन की मुद्रा में बैठाया जाता है। इसके बाद समाधि वाली स्थिति में बिठाकर ही उन्हें विदा दी जाती है। उन्हें जिस मुद्रा में उन्हें बिठाया जाता है, उसे सनातन धर्म के मुतबाकि सिद्ध योग की मुद्रा कहा जाता है। वहीं मृत्यु के बाद पृथ्वी तत्व में या जल तत्व में विलीन करने की परंपरा है। अक्सर गुरु की समाधि के बगल में ही शिष्य को भू-समाधि दी जाती है। शैव, नाथ, दशनामी, अघोर और शाक्त परंपरा के साधु-संतों को भू-समाधि देते हैं।

 

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