कब्रिस्तान में चलती हैं क्लास, शवों के बीच खेलते-खाते हैं मासूम बच्चे

school built in cemetery

पचकुइयां कब्रिस्तान में बढ़ती जा रही आबादी, बनती जा रहीं झुग्गी-झोपड़ियां बाहरी जनपदों और राज्यों से आए लोगों ने कब्रिस्तान में आशियाना बना लिया कब्रिस्तान में संचालित विद्यालय में बच्चे लेते हैं तालीम, आसपास खेलते भी हैं

यूनिक समय, आगरा। कब्र और कब्रिस्‍तान मे जाने से पहले लोग सैकड़ों बार सोचते हैं। पर ताजनगरी में कब्र और कब्रिस्‍तान में खेलना बच्‍चों की आदत हो गई है। यहां एक ऐसा स्‍कूल है जो कब्रिस्‍तान के बीच है। यहां बच्चे इन्हीं के साथ खेलते, खाते और पढ़ते हैं। सैकड़ों शवों के बीच उनकी जिंदगी खिलखिला रही है।
हम बात कर रहे हैं आगरा के शाही पचकुइयां कब्रिस्तान की। यूं तो ये एशिया के बड़े कब्रिस्तानों में एक है। पर इसकी एक और खासियत है। यहां मुर्दे ही नहीं जिंदा लोग भी रहते हैं। मुर्दों के बीच बने स्कूल में बच्चे तालीम हासिल करते हैं। एक ओर कब्रों पर फातिहा पढ़ा जाता है तो दूसरे ओर बच्चे कब्रिस्तान में खेलते हैं। लंबे समय से रहते-रहते उन्हें आदत पड़ गई है। उन्हें अहसास ही नहीं होता कि वह कहां खेल रहे हैं। कब्रों के आसपास जिंदा लोगों ने अपने आशियाने बना लिए हैं। लखनऊ, प्रतापगढ़, भोपाल, वाराणसी के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए कई परिवार और उनके बच्चे यहां रह रहे हैं। यहां बढ़ती आबादी से चिंतित पचकुइयां कब्रिस्तान कमेटी ने प्रशासन से लोगों को हटाने की मांग की है।
चाइल्ड राइट्स एक्टिविस्ट एवं महफूज संस्था के समन्वयक नरेश पारस ने डीएम और एसपी को भेजे पत्र में कहा है कि पंचकुइयां कब्रिस्तान में रहने वाले सभी लोगों की जांच कराकर उनका सत्यापन कराया जाए। बच्चों का बाहर के स्कूलों में दाखिला कराया जाए। उनका नियमित टीकाकरण कराया जाए तथा आंगनवाड़ी से भी जोड़ा जाए। जिससे वह स्वस्थ एवं शिक्षित हो सकें।

अब ढोलक छोड़ करने लगे हैं काम

कब्रिस्तान में बाहर से आकर रहने वाले लोग ढोलक बनाकर बेचते थे तो कुछ लोग गुब्बारे और भीख मांगकर काम चलाते थे। ढोलक का काम कम हो गया तो यहां के युवा नाई की मंडी, मंटोला, ढोली खार, नई बस्ती, शहीद नगर आदि इलाकों के होटल, रेस्टारेंट और ढाबों पर काम करते हैं।
सरकार इन्हें क्यों नहीं देती आवास
सरकार गरीबों को प्रधानमंत्री आवास योजना, कांशीराम आवास योजना के तहत मकान दे रही है। वास्तव में इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता तो इसी तरह के लोगों को है। कालिंदी विहार और ताजनगरी फेस-2 कांशीराम योजना, शास्त्रीपुरम आवास योजना, पथौली आवास योजना आदि में तमाम मकान खाली पड़े हैं, कई जगह तो पड़े-पड़े जर्जर भी हो चुके हैं। अगर इन लोगों को वे आवास मिल जाते तो जिंदों की जिंदगी संवर जाती और मुर्दों के आराम में भी खलल नहीं पड़ता।

—कब्रिस्तान में रहने वालों के बोल—-

-सुल्तानपुर के कुतबुद्दीन नाई की मंडी स्थित एक रेस्टोरेंट में काम करते हैं। कहते हैं, गांव में कोई काम नहीं था तो करीब 40 साल पहले परिजन आकर रहने लगे। अगर सरकार हमारे लिए कोई इंतजाम कर दे तो हम वहां जाकर रहने लगें।
-लखनऊ के मोहम्मद अहसान कहते हैं कब्रिस्तान में रहने का हमें शौक नहीं। पहले पिताजी ढोलक बनाते थे लेकिन हमने दूसरा काम चुना। सरकार हमारी मदद कर दे तो हम भी कब्रिस्तान छोड़कर किसी अच्छी जगह रहने लगें।
-कैंची पर धार लगाने का काम करने वाले नदीम ने बताया, भोपाल से आकर यहां पर काम शुरू किया। हम तो रोजी-रोटी कमाने के लिए आए हैं। अगर सरकार थोड़ी मदद कर दे तो हमारे बच्चों की जिंदगी संवर जाए।
-भोपाल से ही आए सोहेल ने कहा कि जहां भी काम मिलता है, चले जाते हैं। तीन-चार साल से कब्रिस्तान में ही आकर रह रहे हैं। इतना पैसा नहीं कि शहर में कहीं किराये का मकान लेकर रह सकें।

—कोटस–

यहां स्कूल में 75 बच्चे तालीम हासिल कर रहे हैं। स्कूल का खर्चा कब्रिस्तान कमेटी और लोगों की मदद से चलाया जाता है। इन बच्चों को पढ़ाने के लिए छह टीचर लगा रखे हैं। इसमें कब्रिस्तान, नाई की मंडी, आजमपाड़ा तक से बच्चे आते हैं। यहां सभी सरकारी किताबें चलती हैं।
-सैयद शाहीन हाशमी, प्रिसिंपल, दर्सगाह-ए-इस्लामी जूनियर हाई स्कूल

अवैध कब्जों को हटाने के लिए कई बार पुलिस और प्रशासन को लिखित में दे चुके हैं। स्कूल पिछले 45 सालों से लगातार चल रहा है। इसका खर्चा पचकुइयां कब्रिस्तान कमेटी और लोगों की मदद से उठाया जाता है। पहले काफी बच्चे थे लेकिन अब कोरोना के बाद से बच्चों की तादात में कमी आई है।
-जहीरउद्दीन मोहम्मद बाबर, सचिव, शाही पचकुइयां कब्रिस्तान कमेटी

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